मुख्य कहानी

भारतः घटते भूजल को बाँटने का एक आविष्कारी तरीका

22 मार्च, 2010


मार्च 22, 2010 - “अब हमें बारिश की चिंता नहीं। मानसून के नाकाम होने पर भी अब हममें वैकल्पिक फसल बोने का आत्मविश्वास है,” कहते हैं बालराजू, दक्षिण भारत के आंध्र प्रदेश के एक अत्यंत सूखा-ग्रस्त और आर्थिक रूप से पिछडे क्षेत्र के एक किसान।

पिछले साल, जब राज्य के एक बडे भाग में पिछले 30 सालों का सबसे भयानक सूखा पडा था, तब बालराजू की जमीन अप्रभावित रही। कारण यह था कि गाँव के निवासी अब भूजल आपस में बाँट लेते हैं, एक ऐसी कार्यपद्धति जो विश्व बैंक की पायलट परियोजना - आंध्र प्रदेश सूखा अनूकूलन पहल (एपीडीएआई) - ने ईजाद की है। परियोजना से पहले केवल अमीर किसान भूजल प्राप्त कर सकते थे, क्योंकि सिर्फ वे ही गहरे कुँए खुदवाने का खर्च उठा सकते थे। बालराजू समेत बाकियों को अपनी फसल की सिंचाई के लिए बिनभरोसे के मानसून पर निर्भर रहना पडता था।

भूजल का बटवारा

लेकिन अमीर किसानों को उनके कुँओं का पानी बाँटने के लिए राजी करना आसान नहीं था। लेकिन वे राजी हो गए क्योंकि उनमें से कईयों की जमीनें भी उनके कुँओं से दूर थीं। पाइपलाइन के डलने से उनकी जमीन तक भी पानी आने वाला था।

पानी मिलने के बदले में गाँव वालों ने अगले दस साल नए नलकूप न खोदना मंजूर कर लिया। उन्होंने पानी को नियमानुसार इस्तेमाल करना भी मंजूर किया। किसानों को चावल जैसी अधिक पानी की आवश्यकता वाली फसल के बजाय मूंगफली जैसी कम पानी की आवश्यकता वाली फसल बोने के लिए भी प्रेरित किया गया।

अपनी पानी की खपत कम करने के लिए सभी किसानों ने सिंचाई के लिए फव्वारों का उपयोग किया। साथ ही, हर महिने छः दिन जमीन से पानी नहीं निकाला जाता था। इसके अलावा, इस प्रणाली को चलाने का जिम्मा किसी एक व्यक्ती का न हो कर सभी सदस्य बारी-बारी चलाते थे।

आय में लक्षणीय बढोत्तरी

इसके परिणामस्वरूप किसानों की आय में कई गुना बढोत्तरी हुई है। इस साल, 2.5 एकड जमीन पर पैदा मूंगफली से औसतन 8000 डॉलर की कमाई हुई, जबकि पिछले साल चावल से केवल 1000 डॉलर मिले थे।

इसके अलावा, परियोजना क्षेत्र में पिछले दो सालों में कोई नए नलकूप नहीं खोदे गए हैं, जबकि आसपास के क्षेत्रों में ऐसे कुँओं की संख्या में वृद्धी हुई है। पानी के स्त्रोत का संरक्षण करने के साथ ही इस कार्यपद्धती ने मिट्टी और पत्थर को सिकुडने और धंसने से भी बचाया है।

एक नलकूप के मालिक रामकृष्ण इस बात से खुश हैं कि अगले 10 सालों तक क्षेत्र में कोई नया कुँआ नहीं खुदेगा। “इसके अलावा, भूमिगत पाइपलाइन मेरी वर्षा-सिंचित फसल तक पानी भी पहुँचा रही है, जो पहले कभी नहीं हुआ” वे कहते हैं।

मौसम बदलाव के साथ अनुकूलन

पायलट परियोजना ने मौसम बदलाव के प्रति किसानों की प्रतिकार क्षमता बढाने का प्रयास भी किया है। चावल तीव्रकरण प्रणाली (एसआरआई), जो चावल की खेती में कम पानी का इस्तेमाल करती है, की शुरुआत की गई है, और स्थानीय दख्खनी भेड की मौसम प्रतिरोधक जाति को पुनरुज्जीवित किया जा रहा है। तालाब-आधारित मत्स्यपालन केन्द्रों में भी सुधार लाया जा रहा है।

भविष्य की रणनीती

19 पायलटों की इस श्रृंखला की सफलता के बाद राज्य सरकार अब इसके कुछ आविष्कारों को मुख्य धारा में ला रही है। बडे पैमाने पर लागू होने पर ये आविष्कार राज्य के वर्षा-रहित क्षेत्रों के तथा देश के अन्य वर्षा-रहित एवं कम वर्षा वाले क्षेत्रों के करीब 3.5 करोड किसानों को लाभ पहुँचाएंगे।

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