प्रेस विज्ञप्ति

भारत में भौमजल का आवश्यकता से अधिक मात्रा में इस्तेमाल रोकने के लिए व्यावहारिक कदम उठाना संभव।

5 मार्च, 2010



नई दिल्ली, 5 मार्च, 2010:  भारत विश्व में भौमजल का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। अनुमान है कि देश में प्रतिवर्ष 230 घन किलोमीटर भौमजल का उपयोग किया जाता है – यह विश्व की कुल खपत के एक-चौथाई से अधिक है। वास्तव में पिछले 40-50 वर्षों से भारत में भौमजल के इस्तेमाल में लगातार वृद्धि हो रही है। आज भौमजल से भारत की लगभग 60 प्रतिशत सिंचित कृषि और 80 प्रतिशत से अधिक ग्रामीण और शहरी जलापूर्ति को सहारा मिलता है। यह बात विश्व बैंक की नई रिपोर्ट में कही गई है, जिसे आज यहां लांच किया गया।

लेकिन भौमजल संसाधन तेज़ी से घटते जा रहे हैं। आज भौमजल के लगभग 29 प्रतिशत ब्लॉक्स की स्थिति नाज़ुक है या इनका आवश्यकता से अधिक मात्रा में इस्तेमाल हो रहा है। स्थिति तेज़ी से बिगड़ती जा रही है। अनुमान है कि वर्ष 2025 तक भारत के भौमजल के लगभग 60 प्रतिशत ब्लॉक्स की स्थिति नाजुक हो जाएगी। जलवायु-परिवर्तन से भौमजल संसाधनों पर बोझ और बढ़ जाएगा।

हालांकि कई क्षेत्र भौमजल पर बहुत अधिक निर्भर करते हैं और इस संसाधन का ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल हो रहा है, इन संसाधनों के प्रबंध पर व्यय की जाने वाली राशि बहुत कम है। इस निष्क्रियता की वजह यह है कि भौमजल के प्रबंध के लिए प्रस्तावित समाधान प्रायः अत्यंत विवादास्पद हैं – इनमें कुओं का कमांड एंड कंट्रोल नियंत्रण, भौमजल से की जाने वाली सिंचाई के लिए निःशुल्क या सस्ती बिजली पर रोक आदि शामिल हैं।

डीप वेल्स एंड प्रूडेंसः टुवर्ड्स प्रैग्मैटिक एक्शन फ़ॉर एड्रेसिंग ग्राउंडवाटर एक्सप्लॉइटेशन इन इंडिया शीर्षक रिपोर्ट तैयार करने का उद्देश्य भारत में भौमजल का प्रबंध करने के लिए उपयुक्त तथा राजनीतिक दृष्टि से व्यावहारिक रणनीतियों की पहचान करना था। इसके लिए उन व्यावहारिक मॉडलों का पता लगाना था, जिनके सफल होने की संभावना प्रदर्शित हो चुकी है।

भारत में विश्व बैंक के कंट्री डाइरेक्टर रॉबर्टो ज़ाघा ने कहा हैः “रिपोर्ट में ऐसे व्यावहारिक कार्यों का उल्लेख किया गया है, जिन्हें मौजूदा स्थिति में क्रियान्वित किया जा सकता है। हमें आशा है कि हम इन निष्कर्षों की मदद से देश के लिए महत्त्वपूर्ण, लेकिन घटते हुए एक्विफ़र्स (जलभर, जलभृत) की रक्षा करने के लिए तेज़ी से आगे बढ़ने के लिए एक कार्य-सूची को बढ़ावा दे सकते हैं।”

भारत में भौमजल के इस्तेमाल में इतनी भारी वृद्धि के लिए ज़िम्मेदार तत्त्वों का विश्लेषण करते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि भौमजल से उपभोक्ताओं को जल की मात्रा पर नियंत्रण और इसकी आपूर्ति के लिए समय मिल जाता है। यही वजह है कि इसका इस्तेमाल अधिक उत्पादकता से जुड़ा है। उदाहरण के लिए, भौमजल से सिंचित कृषि-फ़ार्मों की फ़सल उत्पादकता सतही जल से सिंचित फ़ार्मों की उत्पादकता से लगभग दोगुनी होती है। अनेक मामलों मे भौमजल का इस्तेमाल सतही जल-प्रणालियों की घटिया आपूर्ति पर एक प्रतिक्रिया भी है।

लेकिन, इस बारे में जागरूकता पहले से बढ़ी है कि भौमजल के वर्तमान इस्तेमाल की रफ़्तार व्यावहारिक नहीं है, क्योंकि एक्विफ़र्स ख़राब होते जा रहे हैं। गुजरात, हरियाणा, महाराष्ट्र, पंजाब, राजस्थान और तमिल नाडु जैसे छह राज्यों में मौजूद 54 प्रतिशत भौमजल ब्लॉक इसी श्रेणी में आते हैं।

भौमजल का सामुदायिक प्रबंधन इस रिपोर्ट में भौमजल का ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल रोकने तथा इसे अधिक व्यावहारिक बनाने के लिए दिए गए कई सुझावों में से एक है, जिसमें उपभोक्ता समुदाय भौमजल का बुनियादी कस्टोडियन है और जल-प्रबंधन के लिए ज़िम्मेदार है। रिपोर्ट में सामुदायिक भौमजल प्रबंधन के मॉडल का उल्लेख किया गया है, जिसे आंध्र प्रदेश में अपनाया गया है और जो विश्व में भौमजल के इस्तेमाल के स्व-नियंत्रण के क्षेत्र में अपार सफलता का पहला उदाहरण है।

रिपोर्ट के अग्रणी लेखक और विश्व बैंक के भारत-स्थित वरिष्ठ जल-संसाधन विशेषज्ञ संजय पहूजा ने बताया, “आंध्र प्रदेश के सूखा-संभावित इलाकों के समुदायों ने एक लाख रुपये प्रति गांव की लागत पर भौमजल के स्व-नियंत्रण का पहला बड़ा उदाहरण प्रस्तुत किया है। खेती से किसानों की आमदनी दोगुनी हो गई है और वे भौमजल को व्यावहारिक स्तरों के करीब लाने में लगे हैं। इसका अर्थ यह है कि अनेक मामलों में किसानों ने जल का इस्तेमाल स्वेच्छा से कम कर दिया है और वे अपनी पेय जल की आपूर्ति और फ़सलों की सुरक्षा कर रहे हैं। यह सब किसान-शिक्षा जैसे असाधारण कार्यक्रम पर अमल करने की वजह से संभव हुआ है, जिसकी वजह से नंगे पैरों वाले भू-जलविज्ञानी पैदा हो गए हैं। इस दृष्टिकोण को कठोर चट्टानों वाले अन्य इलाकों में अपनाया जा सकता है, जहां देश में भौमजल की दो-तिहाई सेटिंग्स मौजूद हैं। ऐसे अन्य कदम भी हैं, जो भौमजल के दुरुपयोग के गंभीर ख़तरे पर ध्यान देने के लिए तुरंत उठाए जाने चाहिए।”

प्रस्तावित कार्यों से भारत में भौमजल के प्रबंध से संबंधित कामकाज में इस तरह का बदलाव लाने का आधार तैयार होगा, जहां इन्हें मौजूदा ढांचे के भीतर कुशलतापूर्वक क्रियान्वित करने से तुरंत ही प्रबंधन-संबंधी परिणाम मिलने शुरू हो सकते हैं।

निष्कर्ष और सिफ़ारिशें

इस रिपोर्ट के मुख्य निष्कर्ष इस प्रकार हैं –

नियंत्रणकारी उपायः प्रभावी नियंत्रण के लिए ठोस कानूनों के साथ-साथ लागू किए गए नियमों के परिपालन पर नज़र रखने के लिए प्रशासनिक क्षमता का होना भी ज़रूरी है। लघु उपभोक्ताओं की संख्या बहुत अधिक होने पर ऐसा कर पाना बहुत कठिन होता है। आज देश में 5723 भौमजल ब्लॉक्स में से 1615 थोड़े नाज़ुक या नाज़ुक ब्लॉक्स की श्रेणी में आते हैं हैं या जिनका ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल किया गया है तथा 108 ब्लॉक्स के संबंध में केन्द्रीय भौमजल प्राधिकरण द्वारा नियंत्रणकारी दिशानिर्देश जारी किए जा चुके हैं। लेकिन, प्राधिकरण और सरकार के पास उक्त नियमों के परिपालन पर नज़र रखने के ज़रूरी संसाधन या कार्यकर्ता नहीं हैं। ऐसे उपायों का कारगर इस्तेमाल भारी जोखिम में पड़े संसाधनों के संदर्भ में ही संभव है।

आर्थिक उपायः मूल्य-संबंधी उपाय, जिनमें मात्रा पर आधारित शुल्क, कर और उपभोक्ता शुल्क शामिल है, जल-संसाधनों के संरक्षण तथा इनके कहीं अधिक कुशलतापूर्वक आबंटन के लिए प्रोत्साहन (इंसेन्टिव) के तौर पर काम कर सकते हैं, बशर्ते इनमें निर्धर्नों की समानता और इन्हें वहन करने की उनकी क्षमता पर ध्यान दिया जाए। लेकिन, क्रियान्वयन एक प्रमुख अवरोध है। यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि 1970 के दशक में, जब भारत में सिंचाई करने वाले पंप सेट्स की संख्या लगभग 1.2 करोड़ थी, राज्यों के बिजली बोर्ड्स ने सभी से एक-जैसा शुल्क (फ़्लैट टैरिफ़) लेने का निश्चय किया था, क्योंकि मीटरिंग पर आने वाली लागत बहुत अधिक थी। इसलिए आज 2 करोड़ से अधिक कुंओं के संदर्भ में भौमजल-शुल्क निर्धारित करने वाली कार्यपद्धति को क्रियान्वित करने के लिए जितनी मात्रा में संसाधनों की ज़रूरत होगी, वे मौजूद ही नहीं हैं।

भौमजल के बेचने योग्य (ट्रेडेबिल) अधिकारः जबकि सुस्पष्ट अधिकारों से संसाधन का उपयोग करने वालों को अधिक लाभ उठाने में मदद मिलती है, इस उपाय को भी नियंत्रण और मूल्य-निर्धारण के लिए उसी बुनियादी कठिनाई का सामना करना पड़ता है – क्रियान्वयन पर आने वाली बहुत अधिक लागत।

भौमजल का सामुदायिक प्रबंधनः समुदायिक जल-प्रबंधन की मुख्य विशेषता यह है कि संसाधन का उपयोग करने वाला समुदाय (राज्य नहीं) भौमजल का बुनियादी कस्टोडियन है और प्रबंधन-संबंधी उपायों को क्रियान्वित करने की ज़िम्मेदारी इसकी है। समुदायिक जल-प्रबंधन में कई चीज़ें शामिल हो सकती हैं, जैसे नियम-क़ायदे, संपत्ति-संबंधी अधिकार और मूल्य-निर्धारण। रिपोर्ट में सामुदायिक जल-प्रबंधन के उस तरीके की व्यावहारिकता का मूल्यांकन किया गया है, जिसे आंध्र प्रदेश के सूखा-संभावित इलाकों में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जा चुका है। सूखा-संभावित सात ज़िलों में 500 से अधिक किसान समुदायों ने भौमजल की उपलब्धता को ध्यान में रखते हुए अपने जल का इस्तेमाल शुरू किया है (जिसका अर्थ है कि कुछ वर्षों में भौमजल के इस्तेमाल में कमी हो जाएगी) और साथ ही वे खेती से होने वाली अपनी आमदनी में भी सुधार कर रहे हैं। इस वजह से आंध्र प्रदेश का मॉडल भौमजल के इस्तेमाल के सामुदायिक प्रबंध में भारी सफलता का विश्व-स्तरीय उदाहरण बन गया है और इस मॉडल को भारत की दो-तिहाई भौमजल सेटिंग्स में सफलतापूर्वक अपनाया जा सकता है।

क्षमता का गठन और राज्य की भौमजल संस्थाओं की भूमिकाओं में तालमेलः यह सुनिश्चित करने के लिए राज्यों की भौमजल से जुड़ी संस्थाओं की क्षमता को विकसित करने की ज़रूरत होगी कि ये जानकारी और तकनीकी समर्थन, कारगर सामुदायिक प्रबंध और नियंत्रणकारी उपाय लागू करने जैसे बुनियादी कार्यों को अंजाम दे सकती हैं।

कृषि में सम्मिलित (कंजंक्टिव) इस्तेमाल को बढ़ावा देनाः गंगा और सिंधु नदी प्रणालियों के सिंचाई नहर कमान क्षेत्र में जलभर, जलभृत (एक्विफ़र्स) की भारी कमी के साथ-साथ प्रायः वाटरलॉगिंग तथा नहरों के रिसावों की वजह से होने वाले लवणीकरण (सेलिनाइज़ेशन) और ऊंची जल-तालिका वाले इलाकों में सतही जल के ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल जैसी समस्याएं भी मौजूद रहती हैं। माइक्रोज़ोन नियोजन (उदाहरण के तौर पर, तंटबंधों की सीलिंग और मुख्य नहरों के डि-सेडिमेंटेशन) की मदद से जल-संसाधनों की व्यावहारिकता से किसी तरह का समझौता किए बिना क्रॉपिंग इंटेन्सिटी बढ़ सकती है।

भौमजल का शहरी जल आपूर्ति के नियोजन में समेकनः भौमजल-संसाधनों के अवसरवादी इस्तेमाल के स्थान पर शहरों में भौमजल के इस्तेमाल की स्थिति तथा भावी मांग को पूरा करने में इसके अंशदान की भूमिका का अधिक क्रमबद्ध आकलन करने की ज़रूरत है।

कृषि के लिए बिजली के मूल्य-निर्धारण के लिए तकनीकी और राजनीतिक समाधानः कृषि क्षेत्र में बिजली पर दी जाने वाली भारी सब्सिडी की मौजूदा व्यवस्था का राज्य के बिजली बोर्ड्स पर भारी वित्तीय बोझ पड़ रहा है और ऊर्जा तथा भौमजल के परस्पर संबंधित मुद्दे का राजनीतिक दृष्टि से व्यावहारिक समाधान ढूंढ़ना भौमजल पर आधारित कृषि और भारत के बिजली क्षेत्र की व्यावहारिकता तथा सस्टेनेबिलिटी (दोनों चीज़ों की स्थाई आधार पर उपलब्धता) को सुनिश्चित करने के लिए महत्त्वपूर्ण है। कृषि के लिए बिजली की अलग से आपूर्ति करने की गुजरात की योजना चंद एक राजनीतिक प्रतिक्रियाओं के बावजूद एक ऐसा समझौता साबित हुई है, जिसके जरिए बिजली और भौमजल के इस्तेमाल को नियंत्रित करने में मदद मिली है तथा इस योजना का सभी जगह अनुकरण किया जा सकता है। उक्त योजना के तहत राज्य सरकार घरेलू, संस्थागत और औद्योगिक इस्तेमाल के लिए चौबीसों घटे बिजली मुहैया कराती है और किसानों को पहले से घोषित समय-सारणी के अनुसार आठ घंटे तक बेहतर क्वालिटी की और विश्वसनीय बिजली मिल रही है।

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