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मुख्य कहानी27 फ़रवरी, 2023

दीदी की रसोई - ग्रामीण महिलाओं के नेतृत्व में चलाया जा रहा एक उद्यम

The World Bank

फोटो क्रेडिट: विश्व बैंक

हाइलाइट

  • केरल प्रदेश के कैफे कुदुम्बश्री मॉडल से प्रेरित, दीदी की रसोई की शुरुआत 2018 में हुई। इसकी पहल वर्ल्ड बैंक द्वारा समर्थित बिहार ट्रांसफॉर्मेटिव डेवलपमेंट प्रोजेक्ट के हिस्से के रूप में की गई थी और इसका कार्यन्वयय बिहार के जीविका द्वारा किया जा रहा है। इसका उद्देश्य है राज्य के सभी जिला और ब्लॉक अस्पतालों में भोजन केंद्रों को स्थापित और संचालित करना।
  • वर्तमान में, बिहार के सरकारी अस्पतालों, मेडिकल कॉलेजों, स्कूलों, बैंकों एवं अन्य संस्थानों में ऐसे 83 से ज्यादा केंद्र संचालित किए जा रहे हैं। करीब 1200 से अधिक महिला उद्यमी इन केंद्रों से जुड़े हुए हैं।
  • जीविका ने भारतीय स्टेट बैंक और भारतीय रिजर्व बैंक की पटना शाखा के लिए उच्च कोटी के भोजन केंद्र स्थापित किए हैं और अब किओस्क जैसे बाजार आधारित मॉडलों से प्रेरणा लेकर भीड़भाड़ वाले इलाकों में भी उद्यमों को संचालित कर रही है। और वे फूड डिलीवरी ऐप के साथ साझेदारी की संभावनाएं तलाश रहे हैं।

सुबह के चार बजे हैं और बाहर अभी भी अंधेरा है लेकिन भारत के पूर्वी राज्य बिहार के बागमंझुआ गांव की लीला देवी उठ गई हैं।  जैसे ही सूरज निकलता है, वह अपने परिवार के लिए नाश्ता और दोपहर का भोजन बनाने में और अपने तीन बच्चों को स्कूल भेजने में जुट जाती हैं।  इन सारे काम को निपटाकर लीला अपने घर से 7 किमी दूर भोजपुर जिले के कोईलवर मानसिक शरण अस्पताल के लिए निकल पड़ती  है, जहां वह अस्पताल के किचन 'दीदी की रसोई' में काम करती हैं।

घर से वह अपनी पारंपरिक साड़ी में निकलती हैं, और अस्पताल पहुंच कर वह अपनी साड़ी के ऊपर सफ़ेद कोट पहनती हैं, सिर को एक पारदर्शी टोपी से ढंकती हैं, और उसी के साथ एक भूरे रंग का एप्रन भी पहनती हैं। रसोई में उनका काम सुबह 6:30 बजे से शुरू होता है और वह दिन भर के मेनू के हिसाब से अस्पताल के मरीजों और कर्मचारियों के लिए नाश्ता और दोपहर का भोजन बनाने की तैयारी में जुट जाती हैं।

लीला देवी बताती हैं, "मेरे पति एक किराने की दुकान में काम करते हैं, और सिर्फ उनकी कमाई से घर का खर्चा चलाना आसान नहीं है।  2022 में, जब मेरे गांव के स्वयं-सहायता समूह के किसी व्यक्ति ने मुझे दीदी की रसोई के बारे में बताया तो पहले तो मैं हिचकिचा रही थी।  मुझे किसी कैंटीन या रेस्तरां या ग्राहकों के साथ काम करने का कोई अनुभव नहीं था।  लेकिन परिवार की सहायता से मैंने सोचा कि चलो कोशिश करते हैं। "

लीला देवी दूसरी महिलाओं के साथ दीदी की रसोई और कैंटीन में काम करती हैं, जहां हर रोज़ 250 से अधिक लोग खाना खाते हैं।  इस कैंटीन को 26 महिलाएं संभालती हैं, जो दो पारी में काम करती हैं और अस्पताल के मरीजों, परिचारकों, कर्मचारियों और वहां आने वाले ग्राहकों के लिए खाना बनाती हैं।

वह मुस्कुराते हुए बताती हैं, "दीदी की रसोई में काम करने से पहले मैं एक साधारण महिला थी; मेरी अपनी कोई पहचान या कोई ख़ास बात नहीं थी।  दीदी की रसोई ने मुझे आत्म-सम्मान की भावना दी है।  मुझे अब अपने पति से पैसे मांगने नहीं पड़ते। " लीला देवी, जिन्होंने आठवीं कक्षा तक पढ़ाई की है, अब हर महीने इस नौकरी की बदौलत 8,000-10,000 रुपये कमाती हैं।

दीदी की रसोई में काम करने से पहले मैं एक साधारण महिला थी; मेरी अपनी कोई पहचान या कोई ख़ास बात नहीं थी। दीदी की रसोई ने मुझे आत्म-सम्मान की भावना दी है। मुझे अब अपने पति से पैसे मांगने नहीं पड़ते।
लीला देवी
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फोटो क्रेडिट: विश्व बैंक

उद्यम की स्थापना

केरल प्रदेश के कैफे कुदुम्बश्री मॉडल से प्रेरित, दीदी की रसोई की शुरुआत 2018 में हुई।  इसकी  पहल  वर्ल्ड  बैंक द्वारा समर्थित बिहार ट्रांसफॉर्मेटिव डेवलपमेंट प्रोजेक्ट के हिस्से के रूप में की गई थी और इसका कार्यन्वयय  बिहार रूरल लाइवलीहुड प्रमोशन सोसाइटी (जिसे जीविका के नाम से भी जाना जाता है) द्वारा किया जा रहा है।  इसका उद्देश्य है की राज्य के सभी जिला और ब्लॉक अस्पतालों में भोजन केंद्रों को स्थापित और संचालित किया जा सके।  बिहार के वैशाली में सबसे पहला केंद्र खोला गया। उसके बाद इस पहल का प्रसार करते हुए बिहार के सभी 38 जिलों में ऐसे केंद्रों की स्थापना की गई।  वर्तमान में, बिहार के सरकारी अस्पतालों, मेडिकल कॉलेजों, स्कूलों, बैंकों एवं अन्य संस्थानों में ऐसे 83 से ज्यादा केंद्र संचालित किए जा रहे हैं।  करीब 1200 से अधिक महिला उद्यमी और 150 पूर्णकालिक कर्मचारी इन केंद्रों से जुड़े हुए हैं, और इन्हे होटल प्रबंधन और खानपान में अनुभवी करीब 20 सलाहकारों का भी सहयोग मिल रहा है।

जीविका इस उद्यम को स्थापित करने के लिए शुरुआती पूंजी प्रदान करती है, और क्लस्टर लेवल फेडरेशंस (सीएलएफ) उपकरणों और बर्तनों की ख़रीद में मदद करते हैं।  सीएलएफ स्थानीय स्वयं-सहायता समूहों की मदद से महिलाओं का चुनाव करते हैं, जिन्हें 7 दिन के प्रशिक्षण कार्यक्रम के माध्यम से स्वच्छता, बहीखाता और ग्राहक सेवा जैसे तकनीकी और प्रबंधकीय पहलुओं को संभालने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। 

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फोटो क्रेडिट: विश्व बैंक

सरकारी अस्पतालों, मेडिकल कॉलेजों, स्कूलों, बैंकों और अन्य संस्थानों में लोगों को "घर का बना" भोजन मिलता है जो सस्ता, पौष्टिक और स्वादिष्ट होता है।  यहां नाश्ते में अंडे, फल और दूध; लंच और डिनर में चावल, रोटी, दाल, मौसमी सब्जियां; और शाम के नाश्ते में चाय और बिस्कुट दिया जाता है।  कैंटीन के ग्राहकों के लिए खाने के मेनू को थोड़ा लोकलुभावन रखा गया है, जिसमें लिट्टी और कचौड़ी जैसे स्थानीय व्यंजन शामिल हैं।  ज्यादातर कच्चा माल स्थानीय किसानों और जीविका से जुड़े उत्पादक समूहों द्वारा खरीदा जाता है।

बक्सर जिला अस्पताल के सिविल सर्जन डॉ.  जितेंद्र नाथ, जिन्होंने अपने अस्पताल में दीदी की रसोई की स्थापना का निरीक्षण किया, को इस उपलब्धि पर गर्व है।  "हमने समय पर दीदी की रसोई को स्थापित करवाया और हम मरीजों और ग्राहकों के फीडबैक से बेहद खुश हैं।  महिलाएं (या दीदी) ही इस उद्यम की जान हैं, जिनकी बदौलत घर से दूर रहकर भी घर के खाने का स्वाद मिल रहा है। "

जिला अस्पतालों की दीदी की रसोइयों में रोज़ाना क़रीब 350 लोग आते हैं, और 15 प्रतिशत शुद्ध लाभ के साथ महीने में औसतन 2.5 लाख रुपए की आमदनी होती है।

बत्तीस वर्षीय प्रियंका देवी बिहार के बक्सर जिला अस्पताल से कोई 10 किमी दूर पंडितपुर गांव में रहती हैं।  वह 2019 से अस्पताल में दीदी की रसोई में काम कर रही हैं और उन्हें खुशी है कि वह इस उद्यम से होने वाली अपनी आमदनी से अपने तीन बच्चों की पढ़ाई का खर्च उठा रही हैं।

वह बताती हैं, "जब मैंने रसोई में काम करना शुरू किया तो मुझे इतनी ज्यादा मात्रा में भोजन बनाने के काम को संभालने में डर लग रहा था।  हमारा पांच सदस्यों का छोटा सा परिवार है, और मुझे इतना सारा खाना बनाने की आदत नहीं है।  लेकिन समय के साथ और दूसरी दीदियों के हौसला बढ़ाने पर, मैंने जल्दी से काम सीख लिया।

अब मुझे कैंटीन में, जहां दिन में तीन बार 250 से ज्यादा लोग भोजन करते हैं, खाना बनाना और उसका प्रबंधन संभालना आसान लगता है और मुझे इसमें बहुत मज़ा आता है। "

आगे की दिशा

दीदी की रसोई में काम करते हुए प्रियंका देवी अपने गांव से निकल कर अलग-अलग जिलों और राज्यों में भी गई हैं।  वह याद करते हुए बताती हैं कि जब वह पहली बार सरस मेले में भाग लेने (या वहां उत्सव मनाने) के लिए पड़ोसी राज्य ओडिशा गई थीं, तब वह बहुत डरी हुई थीं क्योंकि वह इससे पहले कभी अपने गांव के बाहर नहीं गई थीं।  "मैं लगातार बस बुरी चीज़ों के बारे में सोच रही थी।  लेकिन फिर मुझे एहसास हुआ कि अगर आप लोगों को परिवार जैसा समझते हैं तो दूसरे भी आपको वैसा ही समझते हैं।  दीदी की रसोई में काम करते हुए मुझे अपने सुरक्षा घेरे से बाहर निकलने का हौसला और आत्म-विश्वास मिला है। "

सरस मेले में प्रियंका और रसोई की अन्य महिलाओं ने मेले में आने वाले लोगों को खाना बेचने के लिए फूड स्टॉल (ठेला) लगाया और उन्होनें जिलाधिकारी के सचिवालय के लिए महत्त्वपूर्ण बैठकों के दौरान  दोपहर का भोजन भी पहुंचाया।  स्थानीय चुनावों और कोरोना महामारी के दौरान (जब लोग अपने घरों में बंद थे) भी उन्होंने सैकड़ों लोगों के लिए भोजन तैयार करने और उसके वितरण का काम किया।

जीविका ने भारतीय स्टेट बैंक और भारतीय रिजर्व बैंक की पटना शाखा के लिए उच्च कोटी के भोजन केंद्र स्थापित किए हैं और अब किओस्क जैसे बाजार आधारित मॉडलों से प्रेरणा लेकर भीड़भाड़ वाले इलाकों में भी उद्यमों को संचालित कर रही है।  कई पुराने उद्यमों ने सरकारी और CARE और UNICEF जैसे निजी संस्थानों के लिए भी बड़े स्तर पर भोजन सेवाओं की शुरुआत की है और वे फूड डिलीवरी ऐप के साथ साझेदारी की संभावनाएं तलाश रहे हैं।  इन रसोइयों की सफलता को देखते हुए, कई अन्य राज्यों ने इस मॉडल को अपनाया है, जिन्हें नेशनल रूरल इकोनॉमिक ट्रांसफॉर्मेशन प्रोजेक्ट (NRETP) द्वारा वित्त पोषित किया जा रहा है।  विश्व बैंक भारत के ग्रामीण विकास मंत्रालय के साथ मिलकर इस परियोजना को संचालित कर रहा है।

दीदी की रसोई जीविका द्वारा बिहार ट्रांसफॉर्मेटिव डेवलपमेंट प्रोजेक्ट (BTDP) के तहत शुरू किए गए कई उद्यमों में से एक है।  कृषि-आधारित और पोषण-संबंधी हस्तक्षेपों के अलावा, इस परियोजना ने अन्य विकास क्षेत्रों में महिला-स्वामित्व वाले उद्यमों को बढ़ावा दिया है।  खुदरा क्षेत्र में 'ग्रामीण बाज़ार', कला और शिल्प क्षेत्र में 'शिल्पग्राम' और मधुमक्खी पालन क्षेत्र में 'मधुग्राम' इसके उदाहरण हैं।

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