भारत में विश्व बैंक के राष्ट्र निदेशक जुनैद अहमद ने हाल ही में एक वेबिनार में बात करते हुए कहा, "लोग मुझसे पूछते हैं कि विविधता क्यों ज़रूरी है, क्यों अलग-अलग avazon को अपने साथ जोड़ना जरूरी है?"
वह बताते हैं कि विविधता के महत्त्व को पहली बार उन्होंने 1992 में समझा जब विश्व बैंक की टीम ने दक्षिण अफ्रीका का दौरा किया, जो उस वक्त रंगभेद के युग से आगे बढ़ रहा था।
वह बताते हैं, " टेबल पर हमारे सामने अधेड़ उम्र के गोरे पुरुष बैठे हुए थे। और हमारी टीम विविधताओं का मेल थी - काले, गोरे, भूरे; पुरुष और महिला; बहुराष्ट्रीय लोग। ये इशारा था की हम क्या थे और हमारे क्या विचार थे।"
लेकिन तीस साल के बाद भी वह पूछते हैं कि क्या हम सचमुच ऐसा मान सकते हैं कि हमें जहां पहुंचना था, वहां हम पहुंच गए हैं?
बदलाव की राह अभी बहुत लंबी है
प्रांजल पाटिल, भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयनित होने वाली भारत की पहली दृष्टिबाधित महिला हैं। काफ़ी समय तक तिरुवनंतपुरम (केरल) में उप-जिलाधीश के रूप में कार्यरत रहने के बाद अब वर्तमान में वह नई दिल्ली के वसंत विहार में सब-डिविजनल मजिस्ट्रेट (एसडीएम) हैं।
पाटिल, जिन्होंने अपने सपने को पूरा करने के लिए कई बाधाओं का सामना किया, वह अपनी सफ़लता का श्रेय अपनी लगन और दृढ़ता को देती हैं। वह कहती हैं, "हम में से किसी को नहीं पता कि जीवन में आगे क्या होने वाला है। हम सिर्फ़ अपने लक्ष्यों के लिए कड़ी मेहनत कर सकते हैं।"
वह आगे कहती हैं, "हम में कई पहचान होती है।" हमारी परवरिश, हमारे अनुभव, हमारे सामने उपलब्ध अवसर, ये सभी मिलकर हमारी एक पहचान बनाते हैं, जो हर एक के लिए विशिष्ट होती है। अगर हम किसी पर सिर्फ किसी एक पहचान का ठप्पा लगाते हैं तो हम मानवीय अनुभवों की गहराइयों और उसकी जटिलताओं को समझने में अक्षम रहेंगे।
पाटिल समावेशिता के सिद्धांत को सिर्फ़ "बातचीत" तक सीमित रखने की प्रवृत्ति को लेकर आगाह करती हैं। भले ही तमाम कानून और नियम बनाए गए हों और हर क्षेत्र में सकारात्मक विभेद की नीतियां अपनाई जा रही हों, लेकिन तमाम ऐसी सूक्ष्म और परोक्ष बाधाएं होती हैं, जो किसी व्यक्ति को ऊपर तक पहुंचने तक रोकते हैं। "जब तक आपको पता चलता है, हो सकता है कि आप तब तक प्रतियोगिता से बाहर हो चुके हों।"
वह कहती हैं, "हर कोई एक मूलबिंदु से अपनी शुरुआत नहीं करता।" वह अपने कॉलेज के दिनों को याद करते हुए बताती हैं कि कैसे उन्हें अंग्रेजी और कंप्यूटर सीखने और सहपाठियों के स्तर तक पहुंचने में कठिनाईयों का सामना करना पड़ा, जो कि सामाजिक-आर्थिक रूप से मजबूत तबके के लोग थे और अच्छे स्कूलों से पढ़कर आए थे।
वह इस बात पर ज़ोर देती हैं कि लोगों की मानसिकता में बदलाव के लिए ढेर सारी मेहनत की दरकार है। और उसकी जिम्मेदारी हर स्तर पर उठानी होगी, "परिवार, स्कूल, काम, निजी क्षेत्र और सरकार।"
अगर हम उन्हें सशक्त कर दें, तो हमारी क्या ज़रूरत रह जायेगी?
एक पिछड़े और सूखाग्रस्त गांव में सरपंच के तौर पर काम करने और वहां रहने से उन्हें ज़मीनी हकीकतों के बारे में पता चला। वह कहती हैं, "जानवर मर रहे थे। किसान सिर्फ एक वक्त की रोटी पर जिंदा थे। आप इन हालातों को केवल तब समझ पाते हैं जब आपको इससे जुड़ी कोई जिम्मेदारी दी जाती है।"
उनका कहना है कि दुर्भाग्य से, नीति निर्माताओं, प्रशासकों और ज़मीन पर मौजूद लोगों के बीच एक लंबा फ़ासला है। इसलिए विकास के नाम पर ढेर सारा पैसा खर्च किया जाता है, लेकिन उसका कोई परिणाम देखने को नहीं मिलता। उदाहरण के लिए, एक गांव जो सूखाग्रस्त है, वहां पानी की समस्या को हल करने की बजाय आंगनबाड़ी की स्थापना कर दी जाए। इस तरह की नीतिगत गड़बड़ियों के मूल में ये डर समाहित होता है, "अगर हम उन्हें सशक्त कर दें, तो हमारी क्या ज़रूरत रह जायेगी?"
नीतिगत फ़ैसलों की प्रक्रिया में विविधता की अहमियत पर बल देते हुए वह कहती हैं, "काश हम अपने निजी स्वार्थों और अपनी असुरक्षाओं को भूलकर सिर्फ आपसी सहयोग की भावना से प्रेरित होकर एकजुट हो पाते।"
हमें तो बस रास्ता दिखाए जाने की जरूरत है
2009 में, विश्व बैंक के समर्थन से चलाए जा रहे जीविका कार्यक्रम के तहत, अमृता देवी एक स्वयं सहायता समूह की नेतृत्वकर्ता के रूप में उभरी और अपने गांव की महिलाओं की सहायता से उन्होंने कृषि उद्योग की स्थापना की। वर्तमान में वह जीविका महिला कृषि उत्पादन कंपनी लिमिटेड की निदेशक हैं, जहां क़रीब 1500 महिलाएं सदस्य के रूप में कार्यरत
हैं। इस कंपनी की मदद से क़रीब तीन हजार स्थानीय किसानों को लाभ मिला है, जहां उनकी बिचौलियों पर निर्भरता दूर हुई है और उन्हें अपनी फसलों का उचित दाम मिलने लगा है।
इस प्रक्रिया में, अमृता देवी के जीवन में भी बदलाव आया। एक कच्चे घर के बदले आज उनके संयुक्त परिवार के पास तीन घर हैं। अब उनके पास पहले से अधिक जमीनें हैं, किराने की एक दुकान है। वे अब पशुपालन भी कर रहे हैं और उनके बच्चे अच्छे स्कूलों में पढ़ने लगे हैं।
उनका कहना है, "हमें बस राह दिखाने वाले की जरूरत थी। अब हम खुद ही कंपनी चलाते हैं, और उसे अच्छे से संभाल रहे हैं।"
पैसा देना बहुत आसान है, लेकिन अपना समय देना सबसे कठिन है
अक्सर ही सामाजिक-आर्थिक रूप से मजबूत घरों से आने वाले लोग वंचित तबकों के लोगों के संघर्षों को समझने में असफल रहते हैं।
कल्पना मोरापारिया, जिन्हें फोर्ब्स मैगजीन ने अंतर्राष्ट्रीय व्यापार क्षेत्र में दुनिया की 50 सबसे ज्यादा शक्तिशाली औरतों की सूची में शामिल किया है, बताती हैं कि पहले वह लैंगिक मुद्दों को सवालिया नज़र से देखा करती थीं।
एक संपन्न तबके से आने के कारण, मोरापारिया के लिए भारतीय कॉरपोरेट जगत की ऊंचाइयां छूना आसान था। वह याद करते हुए बताती हैं, "ऊंचे पदों पर इतनी सारी औरतों को देखकर हम अक्सर ये मज़ाक करते थे कि क्या पुरुषों के लिए आरक्षण का प्रावधान होना चाहिए?"
लेकिन जब उन्हें भारत में जेपी मॉर्गन की संयुक्त निदेशक की पदवी मिली, तब जाकर उन्होंने हकीकत का सामना किया। वह कहती हैं, "पहले मैं महिलाओं को केंद्र में रखकर होने वाली हर बहस से चिढ़ा करती थी, लेकिन अब मैं इसमें हिस्सा लेती हूं।"
मोरापारिया आशान्वित हैं कि हम महामारी के दौर से और मजबूती के साथ उभरेंगे। उनका मानना है कि तकनीकe सहायता से हम और तेजी से समानता की ओर कदम बढ़ा सकते हैं, और घर से काम करने की सुविधा महिलाओं के लिए और अधिक अवसर लेकर आएगी।
वह कहती हैं, "संपन्न तबके के लोगों को आगे आना ही होगा। पैसा निवेश करना बहुत आसान है लेकिन अपना समय देना सबसे कठिन है।"
राजावत कहती हैं, "अभी ढेर सारा काम करना बचा हुआ है। मैं अधिक से अधिक लोगों के साथ ये उत्साह बांटना चाहती हूं।"
असल में, इस अस्थिर और अनिश्चित दुनिया में हम में से किसी को ये नहीं पता कि आने वाला समय कैसा होगा? लेकिन आपसी रिश्तों, मानवीय संपर्क और समझदारी के बूते हम सभी लोगों को एकजुट कर सकते हैं, और शायद इसी तरह हम मानवता के घावों को भर सकते हैं।