मुख्य कहानी

बिहार ग्रामीण आजीविका परियोजना से हज़ारों को नया जीवन मिला

10 जनवरी, 2011

बिहार के गया ज़िले के शेखवाड़ा गांव में रहने वाली कुंती देवी के पास मुश्किल से एक एकड़ ज़मीन थी। लेकिन अक्सर ही सूखे की चपेट में आ जाने वाली इस ज़मीन से परिवार को अपनी गुजर-बसर के लिए पर्याप्त मदद नहीं मिल पा रही थी। कुंती देवी को एक स्थानीय साहूकार के पास अपनी ज़मीन गिरवी रखनी पड़ी और मजबूरन परिवार के सदस्यों को दूसरों के खेतों पर मज़दूरी करनी पड़ी।

यह तो पांच वर्ष पहले की बात है। आज अपने गांव की महिलाओं के बीच बैठी हुई कुंती देवी की कहानी कुछ अलग है। दो वर्ष पहले विश्व बैंक से सहायता-प्राप्त 7.3 करोड़ अमरीकी डॉलर की लागत वाली और जीविका के नाम से सुविदित बिहार ग्रामीण आजीविका परियोजना (बिहार रूरल लाइव्लिहुड्स परियोजना - बीआरपीएल) से कुंती देवी के लिए नए रास्ते खुल गए थे। इस परियोजना का उद्देश्य किसानों को स्वयं-सहायता समूहों (सेल्फ़-हैल्प ग्रुप्स) में संगठित करना तथा अपनी चीज़ें (असेट्स) छुड़ाने, ऋण, खाद्य तथा स्वास्थ्य सुरक्षा जैसी सामजिक सेवाओं से लाभ उठाने की अधिकारिता प्रदान करना था।

तीन ‍वर्षों से भी कम समय में इस परियोजना ने उत्पादकता बढ़ाने के रास्ते में सामाजिक रुकावटें कम करने और किसानों को बचत के लिए प्रेरित करने से लेकर ऋण-सुविधा सुलभ कराने तक काफी सफलताएं हासिल की हैं। इस सबका श्रेय इस परियोजना को ही जाता है।

खुशी से दमकती हुई कुंती देवी ने बताया, “स्थानीय साहूकार से अपनी ज़मीन छुड़ाने के लिए मैंने एक स्वयं-सहायता समूह से 10,000 रुपये का ऋण लिया था। उस समय साहूकार को मजबूरन दिए गए ब्याज की दर की तुलना में आज मैं ब्याज की बहुत कम दर पर अपना ऋण चुकाने में सक्षम हूं। मैं परियोजना के फलस्वरूप चलन में आई खेती करने की बेहतर पद्धतियों के प्रति कृतज्ञ हूं, जिनकी वजह से मेरी ज़मीन की उत्पादकता में चार गुना बढ़ोतरी हुई है। मेरी आमदनी बढ़ गई है और मैं अपने बेटे को पढ़ने के लिए कॉलेज भेजने में समर्थ हूं।”

गांववासियों को स्थानीय साहूकारों से कमरतोड़ ब्याज पर कर्ज़ लेना पड़ता था, लेकिन स्वयं-सहायता समूहों द्वारा ऋण सुलभ कराने की वजह से यह कठिनाई दूर हो गई।

निर्धनता से छुटकारा

कुंती देवी ही नहीं, बल्कि उनके जैसे हज़ारों व्यक्तियों ने पुराने ऋण चुकाने, अपनी ज़मीन को सुधारने और गिरवी रखी चीज़ें छुड़ाने के लिए ऋण लिए हैं ; कुछ एक व्यक्ति तो उद्यमी बन गए हैं और उन्होंने अपनी छोटी-छोटी दुकानें खोल ली हैं। स्वयं-सहायता समूहों के खुल जाने के बाद से महिलाओं को जल्दी ही पता चल गया कि वे भी ऐसे लाभों और सेवाओं को पाने के लिए दवाब डालने वाले समूहों (प्रेशर ग्रुप्स) के तौर पर काम कर सकती थीं, जिन्हें पाने के उनके गांव अधिकारी थे, जैसे बिजली की आपूर्ति और सड़कों के साथ-साथ सरकारी खाद्य सामग्री और रोज़गार योजनाएं।

शेखवाड़ा गांव की निवासी शोभा देवी एक स्वयं सहायता समूह में शामिल होना चाहती थी, जिसके लिए उसे पांच रुपये मासिक चंदा देना था, लेकिन उसके पति ने धमकी दे डाली कि अगर वह उसमें शामिल होने की ज़िद करेगी, तो वह उसे घर से निकाल बाहर करेगा। उसने अपनी आप-बीती सुनाते हुए बताया, “मेरे पति ने मुझे मारा-पीटा, लेकिन मैं अपनी ज़िद पर डटी रही। मैं बैठकों में शामिल होती रही (प्रत्येक स्वयं-सहायता समूह की नियमित रूप से बैठकें होती हैं और इनमें शामिल न होने वाले सदस्यों को जुर्माना भरना पड़ता है)। आखिरकार, जब मैंने अपना पुराना कर्ज़ उतारने के लिए 20,000 रुपये का ऋण लिया, तब जाकर कहीं मेरे कार्यों का महत्त्व मेरे पति की समझ में आया।”

वास्तव में स्वयं-सहायता समूहों ने स्थानीय बैंकों से मिलकर व्यवस्था की है, जो इन्हें ऋण मुहैया कराते हैं। इसके बाद यही पैसा ज़रूरत के मुताबिक समूह के सदस्यों के बीच ऋण के तौर पर बांट दिया जाता है। सदस्य बैंठकें करते रहते हैं और इनके दौरान एक-दूसरे की ज़रूरतों का जायज़ा लेते रहते हैं और तय करते हैं कि कौन सबसे ज़्यादा ज़रूरतमंद है तथा उसको ही ऋण-राशि दे देते हैं।

ऋण के भुगतान की रणनीति भी महिलाओं द्वारा की जाती है और बैंक में उनका रिकार्ड बहुत अच्छा है। गया-स्थित बैंक ऑफ़ इंडिया के प्रबंधक सुनील नारायण ने बताया कि भुगतान करने में महिलाओं ने कभी कोई देर नहीं की है। “वे बैंक के कारोबार के लिए बहुत अच्छी हैं और उनका समय पर भुगतान करने का रिकार्ड शत-प्रतिशत रहा है। उन्हें ऋण देना लाभप्रद है और अकेले हमारी शाखा स्वयं-सहायता समूहों को ऋण के तौर पर 45 लाख रुपये मुहैया करा चुकी है।”

फ़रवरी 2010 तक बिहार में 18 विकास खंडों के 1,366 गांवों में लगभग 17,044 स्वयं-सहायता समूहों का गठन हो चुका है, जिनकी सदस्य संख्या 96,000 है। वर्ष 2012 में परियोजना के पूरा होते-होते नालंदा, गया, खगरिया, मुज़फ़्फ़रपुर, मधुबनी, पुर्णिया, सुपौल और माधेपुरा ज़िलों में फैले 4,000 गांवों में 5 लाख परिवारों को इनके तहत आच्छादित किया जाएगा।

खेती करने की नई पद्धति

अन्य दूसरों की तरह कुंती देवी ने भी गेहूं उगाने की नई पद्धति अपनाई, जिसे परियोजना द्वारा बढ़ावा दिया जा रहा था। इस पद्धति में जड़ों के संवर्धन पर ध्यान दिया जाता है, जिससे पैदावार में तिगुनी बढ़ोतरी हो जाती है। जीविका के लिए आजीविका के राज्य परियोजना प्रबंधक देवराज बेहेरा ने बताया, “खेती करने की इस पद्धति में बेहतर जड़ों की बढ़ोतरी पर ध्यान दिया जाता है, क्योंकि जड़ पौधे का मुंह होती है। अगर जड़ का ध्यान रखा जाए, तो इससे टिलर्स को समर्थन मिलता है तथा पिछले तीन वर्षों में हमने गेहूं की पैदावार में आश्चर्यजनक बढ़ोतरी होते देखी है।”

जीविका ने वर्ष 2007 में सूखे की संभावना से ग्रस्त गया ज़िले में सिस्टम ऑफ़ ह्वीटइंटेन्सिफ़िकेशन (एसडब्ल्यूआई) नामक नई पद्धति शुरू की और संपूर्ण राज्य में गेहूं बोने वाले 25,000 किसान इस योजना पर काम कर रहे हैं।

किसानों और विशेषज्ञों का कहना है कि यह पद्धति लो-टेक विधियों पर आधारित है और परंपरागत तरीकों से भिन्न इस पद्धति अधिक मेहनत करने की ज़रूरत पड़ सकती है, लेकिन इसमें बीजों, पानी, कीटनाशियों और उर्वरकों की कम मात्रा में ज़रूरत पड़ती है। तीन बच्चों की मां मन्ना देवी ने बताया, “पहले तो हम जैसे-तैसे गुज़ारा कर रहे थे और बच्चों को स्कूल भेजने की तो बात ही क्या, हम रोटी तक नहीं जुटा सकते थे।”

“हम लगभग तीस किलो गेहूं पैदा कर रहे थे, जिससे बस चार महीने निकल जाते थे। हमें कर्ज़ लेना पड़ा और परिवार के भरण-पोषण के लिए मेरे पति को रिक्शा खींचने का अतिरिक्त काम भी पकड़ना पड़ा।”

मन्ना देवी का कहना है कि अब उनके यहां लगभग 80 किग्रा. गेहूं होता है, जो उनके परिवार के लिए एक साल के लिए काफी है और उन्हें आशा है कि वे अपनी अतिरिक्त फ़सल बेच सकेंगी।

समीपवर्ती गांव नवाधी में सिस्टम ऑफ़ ह्वीटइंटेन्सिफ़िकेशन (एसडब्ल्यूआई) का इस्तेमाल करने वाले गांववासियों ने गर्व के साथ अपने खेत दिखाए, जो ऊंची, ठोस और वज़नी बालियों वाली गेहूं की फ़सल से पटे पड़े थे, और बराबर में ही परंपरागत ढंग से उगाई गई गेहूं की सिकुड़ी हुई और कमज़ोर फ़सल खड़ी थी। पड़ोसी गांवों में मिले नतीजों को देखकर पिछले वर्ष खेती करने की नई पद्धति अपनाने वाली सुधा देवी ने बताया, “आपको अंतर एकदम दिखलाई पड़ता है - टिलर्स की संख्या औसतन चार थी और अब मैने अपनी एक फ़सल से ही 75 सक्रिय टिलर्स की गिनती की है।

अपनी पहचान

गया ज़िले के असिस्टैंट कलक्टर बुद्धभट्टी कार्तिकेय ने बताया, “जीविका परियोजना निर्धनों को सहारा दे रही है तथा आत्म-सम्मान और आत्म-विश्वास से भरपूर महिलाओं को तैयार कर रही है।”

आज इन महिलाओं ने अपनी स्वयं की पहचान बना ली है। आठवीं कक्षा की पढ़ाई बीच में ही छोड़ देने वाली बैजंती देवी सामाजिक संगठनकर्ता बन गई हैं, लेकिन उन्हें सड़क बनवाने के उनके कार्य के लिए सबसे ज़्यादा याद किया जाता है। उनके गांव भूसिया में कोई सड़क न थी और स्वीकृत हो जाने पर भी सड़क बनाने का काम आंख-मिचौली खेलता रहा। बैजंती ने बताया, “हमने ठेकेदार का पता लगाया और उस पर सड़क बनाने का काम शुरू करने पर ज़ोर डाला। बाद में हमें मालूम पड़ा कि वह इसके लिए ज़रूरी जल-निकासी प्रणाली मुहैया नहीं करा रहा था। इसलिए हमने इस काम में लगे मजदूरों से बातचीत की और उनसे मदद मांगी। उन्होंने काम रोक दिया और ठेकेदार को सही ढंग से काम करने पर मजबूर कर दिया।”

सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) का संचालन

शेखवाड़ा गांव में जीविका की कोऑर्डिनेटर मीना देवी ने बताया कि किस तरह पुर्णिया और शेखवाड़ा में स्वयं-सहायता समूहों ने लाइसेंस के लिए आवेदन किया और अपने गांवों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दुकानें चलाने का काम संभाला।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली के कामकाज में अव्यवस्था को रोकने की घोषणा करते हुए ये महिलाएं यह दिखलाने के लिए इस योजना का प्रबंध कर रही हैं कि सुव्यवस्थित सार्वजनिक वितरण प्रणाली से किस प्रकार खाद्य और स्वास्थ्य-संबंधी सूचकांकों में सुधार किया जा सकता है।

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