समूचे दक्षिण एशिया से सन्देश एसएमएस, ईमेल, ट्वीटर और डाक के माध्यम से बड़ी संख्या में प्राप्त हुए । दक्षिण एशियाई क्षेत्र में हाल में हुई है घटनाओं ने दुनिया को हैरान और आक्रोशित किया । इसके मद्देनज़र इस क्षेत्र के सात देशों से युवाओं ने लिंग आधारित हिंसा को समाप्त करने के लिए अपने विचार प्रस्तुत किए।
प्रतियोगियों से नौ भाषाओं में प्रविष्टियां प्राप्त हुर्इं। हालांकि यह सीमित थी लेकिन उनमें प्रभावकारी संदेश दिए गए थे। भारत से 18 वर्ष की भूमिका बिल्ला ने लिखा, "पारंपरिक स्री की प्रकृति को त्यागो, लिंग के प्रति संवेदनशील शिक्षा का प्रचार करो, महिलाओं को उग्र और सशक्त बनाओ, ‘सुरक्षित शहर’ अभियान शुरू करो।” बिल्ला कहती हैं कि हिंसा का भय उसकी दैनिक गतिविधियों पर असर डालता है।
वह कहती है, ”जब कभी मुझे दोस्तों के साथ घर से बाहर निकलना होता है...... तो मेरे माता-पिता को दो - चार बार सोचना पड़ता है।” एक धावक को अपना अभ्यास रोकना पड़ा क्योंकि ट्रैक पर दौड़ने वाली वह अकेली महिला थी और खुद को असुरक्षित महसूस करती थी।
दक्षिण एशिया के लिए विश्व बैंक की उपाध्यक्ष इसाबेल गुएर्रेरो का कहना है, "हमें इस विषय पर बहुत अद्भुत, आवेशपूर्ण और उत्साहशील जवाब मिले हैं। इससे पता चलता है कि दक्षिण एशिया में इस मसले ने बहुत लोगों को छुआ है। पुरुष और महिलाएं तथा खासतौर से युवा जो अपने और अपने बच्चों के लिए बेहतर स्थान चाहते हैं।”
"नीति बनाने वालों से लेकर उत्पीड़ित तक हर स्तर पर लिंग आधारित हिंसा के प्रति चुप रहना एक आम बात हो गई - यह सब बदलना होगा ।” - कहती हैं श्रीलंका और मालदीव के लिए विश्व बैंक की देश निदेशक डायरीतोउ गाये, जिन्होंने विश्व बैंक के दो विशेषज्ञों के साथ मिल कर प्रतियोगिता में आई एंट्रीज़ पर निर्णय लिया और 10 विजेताओं का चयन किया।
नेपाल के 21 वर्ष के उदय सिंह करकी इस संदेश पर विजेता बने - "सरकारः कड़े कानून और उन्हें लागू करना। पुरुष: स्त्री-पुरुष (लिंग) समानता की सीख और इसके न मानने के विरुध कानून। महिलाएं: अधिकारों के बारे में जानकारी।”
एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा, "जब मैं स्त्री-पुरुष (लिंग) असमानता या लिंग आधारित हिंसा के बारे में सोचता हूं, सच कहूं तो मैं जोर से चीख और चिल्ला कर अपने दिल के बोझ को हल्का करना चाहता हूं क्योंकि मैं उस समुदाय का हिस्सा हू जहां एक माँ प्रसव के समय बहुत अधिक पीड़ा सहने के बाद बच्चे को जन्म देती है लेकिन बच्चे की पहली सांस के साथ ही सवाल किया जाता है - लड़का है या लड़की ? और यदि वह लड़की हो तो उसका परिवार जीवन के पहले दिन से ही उसकी अनदेखी करने लगता है। आने वाले दिनों में उसकी शिक्षा, स्वास्थ्य, अवसर और जीवन के हर पहलू के बारे में निर्णय लेने में यह भेदभाव प्रकट होता है। अंत में, वह आखिरी सांस लेने के बाद ही चैन की सांस लेती है। इस समुदाय का अंग होने के नाते मैं भी इस हालात के लिए जिम्मेदार हूं। लेकिन मैं बदलाव चाहता हूं और हां, मैं अपने आप से इसकी शुरुआत कर रहा हूं।”